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Monday 20 October 2014

मौत

ताउम्र बेचारगी से अपनी, लड़ता है आदमी,
मौत से पहले भी कई मर्तबे, मरता है आदमी, 
क्यूकि कहीं ना कहीं जिन्दा, आज भी उसका ज़मीर है, 
जाने कब से आत्महत्या और उसके बीच, महीन सी एक लकीर है, 
लीक से हटकर कभी वो चला नहीं, अपनी ही जात का अलमस्त वो फ़कीर है !

सर पर आज भी उसके लटकती, बेबसी की नंगी शमशीर है, 
बंदर के बच्चे से सभ्य इंसान बनने की जुगत भिड़ाता, वो बेसऊर है, 
आदमियत पर अपनी इतराता, फक्त इतना सा उसका कसूर है, 
पल-पल मरने की बेबसी को घूरता, गरियाता है, 
अपने कर्मो की रस्साकसी में उलझा, वो दरिद्र सा बुदबुदाता है !

क्युकि मौत तो शाश्वत है, 
क्यूकि मौत को तो आना ही है,
क्यूकि मौत तो आकर रहेगी ही,
दबे पाँव ही सही बिल्ली की तरह आएगी,
और आँख बंद किये कबूतर से मानव को, दबोच अपने पंजो में ले जायेगी !

जिन्दगी क्या है ? बस कर्मो का मेला है,
जिन्दगी की दौड़ में स्पर्धा अव्वल आने की,
हांफता दौड़ता जीव सिसकता सा अकेला है,
चूहे बिल्ली सी दौड़ अभी जारी है,
कभी चूहा तो कभी बिल्ली चूहे पे भारी है !

फिर क्या, मौत से पहले मरना जीना, 
आत्मा तो अजर है अमर है ना, 
उतार पुराना चौला नए में ढल जायेगी, 
या विचरते भटकते युहीं किसी दिन शून्य में विलीन हो जायेगी,
अंतिम ध्येय तो बस निर्विकार भाव से अनंत में एकाकार होना है, 
फिर कैसी आदमियत और कैसा मारना जीना ?

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