नमस्कार मित्रो एक बार फिर जून माह
में हुई सन्निधि संगोष्ठी की विस्तृत रिपोर्ट आप सभी के समक्ष प्रस्तुत
है, क्षमा प्रार्थी हूँ पिछले कुछ समय से व्यस्तता के चलते रिपोर्ट
प्रस्तुत करने में देरी हो रही है !
21 जून 2014 को होने वाली
सन्निधि संगोष्ठी सफलता पूर्वक संपन्न हुई, गोष्ठी के प्रारंभ में विष्णु
प्रभाकर प्रतिष्ठान के मंत्री अतुल कुमार ने पिछले पंद्रह महीनों से
लगातार संचालित की जा रही सन्निधि संगोष्ठी की उपलब्धियों की जानकारी देते
हुए अपने पिता विष्णु प्रभाकर के योगदान को याद किया। संचालन कर रहे
वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने मीडिया, संस्कृति, साहित्य और भाषा के
सवाल को अहम बताते हुए कहा कि अब इन सब मुद्दों पर गंभीरता से विचार करने
का निर्णायक समय आ गया है।
अशोक कुमार झा जी ने अपने वक्तव्य में
कहा विष्णु प्रभाकर जी के १०३ वें जन्मदिन पर काका साहेब कालेलकर की
कर्मस्थली में "द डे आफ्टर मंथ" के दो साल पूरे होने के उपलक्ष्य में और
सन्निधि की १५वीं गोष्ठी के अवसर पर मैं आप सभी का हार्दिक अभिनंदन करता
हूँ, ये समारोह आप सभी के बिना पूरा नहीं होता, "द डे आफ्टर मंथ" के
प्रकाशन को दो साल पूरे हुए, इन दो सालों में न्यूनतम साधन से इस पत्रिका
के लगातार 24 अंकों का प्रकाशन करना हमारे लिए अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा, इस
पत्रिका में राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक ख़बरों और लेखों के प्रकाशन के
साथ साहित्य और संस्कृति को भी प्रयाप्त महत्व दिया जाता रहा है, अभी हमने
फैसला किया है समय समय पर उन साहित्यकारों पर विशेषांक निकाला जाए जिनके
जन्म को सौ वर्ष पूरे हो चुके है, और इसी कड़ी में प्रथम बार जून का अंक
विष्णु प्रभाकर पर केन्द्रित किया गया, आज चिंता का विषय है, आज पात्र
पत्रिकाओं में साहित्य और संस्कृति को बहुत कम महत्व दिया जा रहा है, जबकि
हकीकत ये है अपने देश में हिंदी पत्रकारिता को स्थापित करने में साहित्य
और संस्कृति से जुड़े पुरोधाओं का योगदान रहा है, अगर साहित्य और संस्कृति
का प्रवाह बहता रहे, तो इससे समाज न सिर्फ समृद्ध होता है, अपितु इसे दिशा
भी मिलती है, इसीलिए आज के समारोह में होने वाली संगोष्ठी का विषय
"मीडिया साहित्य संस्कृति और भाषा" रखा गया है, हमें उम्मीद है संगोष्ठी
में हमारे विद्वान अतिथियों द्वारा जो विचार रखे जायेंगे, वें हम सभी के
लिए कारगर साबित होंगे !
प्रेमपाल शर्मा जी ने अपने वक्तव्य में
हिंदी की दिशा दशा पर चिंता व्यक्त की, उन्होंने कहा पिछले दिनों साहित्य
ही गायब नहीं हो रहा है, अपितु साहित्यकारों की स्मृतियाँ भी गायब हो रही
है सिरे से, कुछ समय पूर्व मेरा बनारस जाना हुआ, बनारस हिंदी का गढ़ माना
जाता रहा है, वहां पुस्तकालय के नाम पर २०-२० किताबें थी और उनकी भी जिल्द
फटी हुई थी, मेरी ये टिपण्णी यहाँ इसीलिए आवश्यक है क्युकि हिंदी आज
विस्मृति के दौर पर है हिंदी का जो नुक्सान हो रहा है, किसी विधा के खिलाफ
जो गोलबंदी है, उससे सुराख़ करने की शुरुवात हो चुकी है, गाँधी जी और उनके
अनुसरण करने वालो से हमने सीखा अपनी सतह से चिपककर रहना, पात्र पत्रिकाएं
भी धर्म की तरह हमारे भीतर प्रवेश कर जाती है, प्रेमपाल जी ने चिंता जाहिर
की कि न केवल साहित्य, बल्कि साहित्यकारों की स्मृतियां भी गुम हो रही
हैं। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दृढ़ता के अभाव में आज हमारी हिंदी की
दुर्गति हो रही है।
वरिष्ठ साहित्यकर और समयांतर पत्रिका के संपादक
पंजर बिष्ट ने अपने वक्तव्य में कहा विष्णु जी के साथ मेरी मित्रता रही और
एक लम्बे समय तक रही, लगभग २०-२५ साल बैठा करता रहा मैं उनके साथ कॉफ़ी
होम में ये कोई छोटा दौर नहीं था ये मान लीजिये मैंने अपनी जवानी का एक
विशिष्ट समय उनके साथ बिताया और विष्णु जी तो लगातार जवान ही रहे, असल में
विष्णु जी जिस तरह के व्यक्ति थे, ७७ के बाद जब आपातकाल के दौरान ही उनसे
मेरा सम्बन्ध बना मैंने विष्णु जी से ये सीखा एक लेखक होने के लिए सबसे
जरुरी ये है, आप कितने उदार हो, कितने लोगो के साथ आप मिल सकते है, क्युकि
विष्णु जी कॉफ़ी हाउस में बैठते थे और उनके साथ कोई भी बैठ सकता था, और
उनसे बात कर सकता था, अक्सर सारे हिन्दुस्तान से लोग वहां आते थे, उनके
बहुत से मित्रो से मेरा परिचय कॉफ़ी हाउस में ही हुआ, ऐसे ही त्रिवेंद्रम
के उनके एक मित्र से मेरा परिचय वहां हुआ और बाद में एक बार त्रिवेन्द्रम
जाने पर उन्ही मित्र ने हमारी बहुत सहायता की, विष्णु जी की मित्रता का
दायरा बहुत बृहद था, उनके जैसे दायरा तभी बन सकता है जब आप उदार हो या फिर
आपकी रचनाओं से लोग परिचित हो, दूसरी बात जो लेखक के तौर पर मैंने उनसे
सीखी वो ये है, एक लेखक अपने विचारो में लगातार उदार होता है, और वो एक
बेहतर समाज के निर्माण के लिए जहाँ समानता हो, ऐसे समाज निर्माण के लिए वो
सतत प्रयत्नशील होता है, और कल्पनाशीलता के साथ उसी के लिए वो जीवन भर
काम करता है, विष्णु जी की रचनाओं में लगातार आप ये बात देखेंगे, उन्होंने
जातिप्रथा स्त्री पुरुष के बीच के अंतर को मिटाने का प्रयत्न किया ये
अपने आप में एक बड़ी बात थी, तीसरी बात ये है आप देखिये लेखक की दुनिया
सीमित नही होती, वो कितना विशाल होता है इसका उदाहरण कि विष्णु प्रभाकर जी
शरत जी के जीवन से प्रभावित रहे, और उनकी जीवनी पर उन्होंने काम किया,
ऐसे कठिन दौर में जब उनके पास आय का कोई निश्चित साधन नहीं था, और परिवार
की जिम्मेदारियां भी थी, वो जिस तरह से बांग्लादेश और वर्मा तक गए, और शरत
जी के जीवन सम्बंधित जानकारी एकत्र करी, और बाद में आवारा मसीहा जैसी
कृति समाज को दी वो अपने आप में एक मील का पत्थर है, एक लेखक के नाते आपको
खुला और विश्वसिक दृष्टि का होना चाहिए, ये वो बातें है जो संस्मरण रूप
में मैं आज विष्णु जी की १३०वी जन्मशती के अवसर पर उन्हें श्रधान्जली रूप
में उन्हें अर्पित करना चाहता हूँ, जब भी विष्णु जी को याद करता हूँ मुझे
लगता है मैंने उनके साथ एक पूरी शताब्दी पार कर दी हो, मैं उनके निकट रहा
ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है, आज जो विषय है उसपर बात करना थोडा सा विकट
है, आज जो दौर है वो मीडिया का दौर है, आज बेव पत्रकारिता पूरी तरह से
हमारे जीवन को प्रभावित है करती है, संस्कृति को बचाने में राष्ट्रभाषा
हिंदी का अहम योगदान रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर से संस्कृति पर हो
रहे लगातार हमले पर अफसोस जताते हुए कहा कि देश में त्रिभाषा प्रणाली
लागू नहीं की गई। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शिक्षा का अधिकार अपनी
मातृभाषा में ही हासिल करने की कोशिश होनी चाहिए।
अध्यक्षीय वक्तव्य
देते हुए केके बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक डा सुरेश ऋतुपर्ण ने कहा कि
हिंदी का सवाल अहम है। इसकी समृद्धि के लिए निरंतर प्रयास होने चाहिए।
उन्होंने कहा कि भाषा गई तो संस्कृति भी नहीं बचेगी। डा ऋतुपर्ण ने भारत
से बाहर के देशों में हिंदी के बढ़ते प्रचार-प्रसार के बारे में विस्तार से
बताया।
गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा और विष्णु प्रभाकर
प्रतिष्ठान की ओर से आयोजित समारोह में विष्णु प्रभाकर पर केंद्रित ‘द डे
आफ्टर मंथ’ के विशेषांक का और उत्तर प्रदेश में छप्पन गांवों में
पुस्तकालय अभियान को संचालित करने वाली संस्था कर्तव्य की ओर से प्रकाशित
पत्रिका का लोकार्पण किया गया। साथ ही गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा की
मंत्री सुश्री कुसुम शाह के सानिध्य में समाजसेवा, पत्रकारिता और अन्य
क्षेत्रों में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे युवाओं में शूमार कुमार कृष्णन,
अमृता , राजीव तनेजा, अरुण शर्मा अनंतसुशील जोशी, सज्जन कुमार गर्ग, सोमा
विस्वास, बीएम मिश्रा, अनिल कुमार बाली और अशोक झा को सम्मानित किया गया।
समारोह
के आखिर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें हर्षवर्धन आर्य, इंदू
सिंह, सुशील जोशी, संतोष सौम्य, सरोज सिंह, रुप आहूजा, अनिल कुमार बाली,
राहुल उपाध्याय, अरुण शर्मा अनंत, निवेदिता मिश्रा झा और सोमा विस्वास ने
अपनी-अपनी कविताओं का पाठ किया। काव्य गोष्ठी का संचालन सन्निधि संगोष्ठी
की संयोजिका किरण आर्या ने किया। धन्यवाद ज्ञापन द डे आफ्टर मंथ की
महाप्रबंधक सारिका ने किया। समारोह में रमेश शर्मा, गंगेश गुंजन और नारायण
कुमार सहित हंस पत्रिका के कार्यकारी संपादक संगम पांडेय के साथ बहुत से
मित्र भी मौजूद थे जिनमे आलोक खरे, डी के बोस, नरेन् आर्य, राजेन्द्र
कुंवर फरियादी, प्रेम सहेजवाला, संजय गिरी भी मौजूद थे।
प्रस्तुति : किरण आर्या