Followers

सन्निधि संगोष्ठी में आप सभी का स्वागत एवं अभिनन्दन।

Thursday, 19 December 2013

सन्निधि संगोष्ठी विस्तृत रिपोर्ट अंक 09 (१४- दिसम्बर -२०१३)

सन्निधि संगोष्ठी अंक : 09
दिनाँक / माह : 14-दिसमबर-२०१३
विषय : दोहे / मुक्तक

नमस्कार मित्रो कल यानी १४ दिसम्बर को सन्निधि की नौवीं गोष्ठी जो "दोहे और मुक्तक" पर आधारित रही सफलता पूर्वक संपन्न हुई गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार साहित्यकार हिरेन्द्र प्रताप सिंह जी ने की, मुख्य अतिथि के रूप में दोहा सम्राट और गज़लकार नरेश शांडिल्य जी हमारे बीच में रहे, साथ में अतिथि कवयित्री के तौर पर कोरबा से आई सीमा अग्रवाल दी और मुंबई से आई शील निगम जी हमारे बीच रही ! उनके अलावा अतुल प्रभाकर जी उनकी धर्म पत्नी आराधना जी, लतांत प्रसून जी, कुसुम शाह दी, नंदन शर्मा जी, आदरणीय सर्वेश चंदौसी जी अखिल चंद्रा जी, रेखा व्यास, अनिल जोशी उनकी धर्मपत्नी सरोज जोशी, पुष्पा जोशी, शशिकांत (गज़लकार) आशीष कंधवे, हर्ष वर्धन आर्य, बालकिशन शर्मा, सुरेन्द्र सैनी, विजय शर्मा, सीमान्त सोहल, सुबोध कुमार, बीना हांडा जी, अनीता दी, अर्चना दी उनके पतिदेव, अशुमन प्रभाकर और उनकी धर्मपत्नी, राजीव तनेजा, बलजीत कुमार, सुशील जोशी, राजेंद्र कुंवर फरियादी, कामदेव शर्मा, संजय कुमार गिरी, निवेदिता मिश्रा झा, अलका भारतीय, उर्मी धीर, अरुन शर्मा
अनन्त , नीरज द्विवेदी, कौशल उप्रेती, इंदु सिंह, वंदना ग्रोवर, मृदुला शुक्ल, संगीता शर्मा, डॉ रेनू पन्त, कांता कावेरी, केदार नाथ, अविनाश वाचस्पति, राम श्याम हसीन, चेतन नितिन राज खरे, परवीन कुमार, वी के बोस, रेनू रॉय, और कुछ अन्य मित्र भी शामिल हुए !


आयोजन की शुरुवात लतांत प्रसून जी ने अपनी चिरपरिचत मुस्कान के साथ अतिथियों के लिए दो शब्द कहकर की, साथ ही उन्होंने संस्कृत में दोहों और मुक्तक की चर्चा करते हुए कहा कि आज हिंदी में लिखे जा रहे दोहे और मुक्तक नीतिपरक और श्रृंगार प्रधान ना होकर मौजूदा समय की सच्चाई और समाज के सरोकारों को वाणी दे रहे है !उसके बाद अतुल जी ने स्वागत भाषण दिया और सन्निधि संगोष्ठी के मकसद को उजागर करते हुए नए रचनाकारों की भूमिका का उल्लेख किया।

सन्निधि की सबसे कर्मठ सदस्य कुसुम शाह दी का सम्मान एक शाल के साथ मुख्य अतिथि और अध्यक्ष महोदय के द्वारा किया गया फिर हम सभी के अज़ीज़ लतांत प्रसून जी का सम्मान शाल देकर किया गया और उसके पश्चात् मुझे यानी किरण आर्य को अपने स्नेह से नवाजते हुए मेरे सभी आदरणीय जनों ने सम्मान स्वरुप विष्णु प्रभाकर जी की अमूल्य कृति "आवारा मसीहा" सम्मान स्वरुप दी जो मेरे लिए बहुत गर्व की बात रही, अतुल जी ने इस बार भी एक यथार्थ घटना सन्देश रूप में सामने रखी, जो वास्तविक धरातल से जुडी हुई थी, फिर सरिता भाटिया जी के पर्तिदेव को गत समय में दिवंगत हुए सभी महान साहित्यकारों को श्रधांजली देते हुए सभी ने दो मिनट का मौन रखा, उसके पश्चात् अतुल जी ने किरण आर्य को सञ्चालन के लिए निमंत्रित किया !


मंच पर कुल 12 रचनाकारों ने अपने दोहे और मुक्तक रखे, जिनके नाम है .....अनीता प्रभाकर, सुशील जोशी, अरुन अनंत शर्मा, नीरज द्विवेदी, इंदु सिंह, मृदुला शुक्ला, किरण आर्य, डॉ रेनू पन्त, निवेदिता मिश्रा झा, अविनाश वाचस्पति, चेतन नितिनराज खरे, और आदरणीय सर्वेश चंदौसी जी उनके अलावा हमारी अतिथि कवयित्री सीमा अग्रवाल दी ने अपने कुछ दोहे और दो गीत हम सभी के समक्ष रखे उनके गीतों ने समां बाँध दिया सबने उन पलों का भरपूर आनंद लिया और हमारी दूसरी अतिथि कवयित्री शील निगम जी ने अपनी एक कविता और एक ग़ज़ल हम सभी के समक्ष रखी !


उसके पश्चात हमारे मुख्य अतिथि श्री नरेश शांडिल्य जी ने अपना वक्तव्य दिया, उन्होंने कहा सबसे पहले तो मैं आयोजको को बधाई देता हूँ, जिन्होंने 9 महीने में ही संगोष्ठी का ऐसा स्वरुप खड़ा कर दिया है, जो की दिल्ली में बहुत कम संस्थाए कर पा रही है, इसके लिए जो इसके सूत्रधार है अतुल प्रभाकर जी प्रसून लतांत जी कुसुम शाह जी नंदन शर्मा जी और किरण आर्य जी ने इस आयोजन की रूपरेखा रखी, और हम सभी को इस संगठन से जोड़ा ! आज जितने भी प्रतिभागी थे उनको सुनकर बहुत सुखद अनुभूति हुई और बहुत से प्रतिभागियो ने बहुत उम्दा प्रस्तुति यहाँ की, तो बहुत अच्छा लगा की एक प्रबुद्ध और नए रचनाकारो का एक स्वरूप आ रहा है सामने, इसके लिए मैं आयोजको को धन्यवाद देता हूँ ! उन्होंने सुझाव के तौर पर कहा कि यहाँ बहुत संभावनाए है युवा रचनाकारों में, उनकी इस प्रतिभा को निखारने के लिए एक कार्यशाला रखी जा सकती है, जो इन विधाओं के जानकार है उन्हें इन कार्यशाला में बुलाया जाए जिससे उनके और नए रचनाकारों के बीच एक संवाद स्थापित हो सके, कविता किसी को सिखाई नहीं जा सकती है, लेकिन एक दिशा जरुर दी जा सकती है, नए रचनाकारों की जिज्ञासाएं शांत करने के लिए एक कार्यशाला की विशेष भूमिका हो सकती है, मैं आयोजको से निवेदन करूँगा की गर संभव हो सके तो एक ऐसी कार्यशाला की रूपरेखा तैयार की जाए ! इसके पश्चात उन्होंने अपने कुछ दोहे सुनाये सभी श्रोतागण उनके दोहे सुनकर वाह वाह कर उठे, उनके दोहे आयोजन की आत्मा रहे ! अतुल जी ने उसके पश्चात कहा कि हम सभी के पास ये एक अवसर है कि इन गुनीजनो के सानिध्य में हम सीखे गुने बुने और आगे बढे, और इसके बाद अतुल जी ने नरेश शांडिल्य जी और हरेन्द्र प्रताप जी के व्यक्तित्व को मद्देनज़र रखते हुए दो चार पंक्तियाँ कही !


उसके पश्चात गोष्ठी के अध्यक्ष हरेन्द्र प्रताप जी ने अपना वक्तव्य दिया, उन्होंने कहा मित्रो आज के इस आयोजन के लिए आयोजको को बधाई देना चाहता हूँ,मैं कहना चाहूँगा कि काका कालेलकर जी की और विष्णु प्रभाकर जी की रूह मुझे यहाँ खीच लाई, जैसा की आप सभी जानते है मुझे विष्णु प्रभाकर जी के करीब रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, मैंने उनकी रचनाओं को बहुत करीब से देखा,मैंने कई मर्तबे उनके नाटक और एकांकी पर अभिनय भी किया, जब कोई किसी लेखक की रचनाओं को जीता है तो कहीं ना कहीं वो लेखक से बहुत करीब से जुड़ जाता है, जहाँ तक प्रसून लतांत जी है उनसे मेरा रिश्ता पुराना है, 1985 में भागलपुर में हम एक अखबार से जुड़े थे, और भाई राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में खोजी पत्रकारिता के क्षत्र में अलख जगाने का प्रयास भी किया ! आज की संगोष्ठी का विषय कहीं ना कहीं साहित्य में है, जो आज के समय में कहीं खो सा गया है उसे फिर से जीवंत किया इस आयोजन ने, इस विषय को ढूँढने और फिर से जीवित करने के लिए मैं आप सभी को साधुवाद देता हूँ, ये सभी विधाए समकालीन चिंताओं को उकेरती है, एक सृजक अपनी बात बिभिन्न आकारों में कहने की कोशिश करता है, जो आकार उसे सबसे सुलभ लगता है वह उस ओर बह चलता है !
साहित्य का भक्ति काल दोहों और रीतिकाल मुक्तक पर आधारित रहा, दोहे के बिना कोई महाकाव्य नहीं रचा जा सकता है ये रीढ़ है साहित्य की, दोहा लिखना कहना और गढ़ना सबसे मुश्किल काम है पद्य के क्षत्र में, रसखान ने अपने दोहों में बहुत से प्रयोग किये और उन्हें लेकर ही आने वाले साहित्यकारों ने बड़े बड़े लेख लिखे, दोहे मुक्तक में एक बूँद में सागर नज़र आना चाहिए, इसीलिए दोहा रचना सबसे चुनौती पूर्ण है, और सिर्फ दोहा ही नहीं अन्य भाषाओ में जाए तो जहाँ शेर कहे जाते है, या अन्य भाषाओ में जाए तो मुक्तक लिखे कहे जाते है ये मुक्तक जो अद्भुद है, ठेट हिंदी और लोकगीतों में मुक्तक का खूबसूरत प्रयोग देखने को मिलता है, पूरे विश्व की काव्य संस्कृति विलक्षण है और इस विलक्षणता में दोहे उस मोती की तरह से है जो कितनी प्रक्रियाओ के बाद जाकर तैयार होता है, और एक सुखमय एहसास बुनता है, और आज का जो दौर है तमाम अच्छाइयों के बावजूद मानसिक रूप से सभी तनावग्रस्त है, और इस तनाव में जो एक सापेक्ष चीज़ है वो है हम साहित्य से जुड़े लोग इस तनाव को कहीं ना कहीं कम करने का प्रयास करते है, और जाहिर है कोई भी दोहा मुक्तक या काव्य समाज को सुंदर बनाने के लिए रचा जाता है, मैं खुलकर कह सकता हूँ की इतने सालो में पहली बार मैं इस विषय पर कोई संगोष्ठी होते देख रहा हूँ, इसीलिए भी मैं आयोजको को धन्यवाद देना चाहता हूँ, साथ ही ये कहना चाहता हूँ जितनी भी रचनाये मंच पर आई उनके एक उम्मीद एक सम्भावना है!


प्रस्तुतकर्ता : (किरण आर्य)

No comments:

Post a Comment