सन्निधि संगोष्ठी अंक : 10
दिनाँक / माह : 18 जनवरी, 2014
विषय : हायकु / क्षणिका
दिनाँक / माह : 18 जनवरी, 2014
विषय : हायकु / क्षणिका
नमस्कार मित्रो 18 जनवरी को सन्निधि की दसवीं गोष्ठी जो "हायकु और क्षणिकाओं" पर आधारित रही सफलता पूर्वक संपन्न हुई गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ गज़लकार हायकुकार साहित्यकार श्री कमलेश भट्ट कमल जी ने की,मुख्य अतिथि के रूप में हायकुकार और नवगीतकार श्री जगदीश व्योम जी हमारे बीच में रहे, साथ में अतिथि कवयित्री के तौर पर डॉ वंदना ग्रोवर दी और अतिथि कवि के तौर पर श्री सीमान्त सोहल जी हमारे बीच रहे ! उनके अलावा अतुल प्रभाकर जी उनकी धर्म पत्नी आराधना जी, उनकी सुपुत्री और दामाद जी के साथ प्यारी सी स्वस्ति, लतांत प्रसून जी, कुसुम शाह दी, नंदन शर्मा जी, पुष्पा जोशी, नेहा नाहता, अर्चना प्रभाकर जी उनके पतिदेव, सुबोध कुमार, बीना हांडा जी, राजीव तनेजा, बलजीत कुमार, कामदेव शर्मा, निरुपमा सिंह, रश्मि नाम्बियार, मृदुला शुक्ला, शोभा मिश्रा, देवेश त्रिपाठी, बबली वशिष्ठ, नीरज द्विवेदी, निवेदिता मिश्रा झा, संजय सिंह, आरती शर्मा, राजेंद्र कुंवर फरियादी, संजय कुमार गिरी, प्रियंवदा सिंह, महाखबर अखबार के संपादक सुधाकर सिंह और रांची से व्यंग लेखक पंकज यादव जी पधारे !
आयोजन की शुरुवात लतांत प्रसून जी ने अपनी चिरपरिचत मुस्कान के साथ अतिथियों के लिए दो शब्द कहकर की, प्रसून लतांत ने हाइकू और क्षणिकाओं के उद्भव और उसके विकास की चर्चा करते हुए कहा कि विधाएं अलग-अलग भले हों लेकिन वे महत्त्वपूर्ण इसलिए होती हैं कि उसमें किस हद तक सच्चाइयां पिरोई होती हैं। उन्होंने कहा कि 19वीं सदी में जापान में शुरू हुए हाइकू का भंडार काफी समृद्ध है। अब यह हिंदी में भी उपलब्ध है। हिंदी के वरिष्ठ आलोचक क्षणिका जैसी विधा पर तवज्जो नहीं देते पर इसकी रचना भी खूब हो रही है और विभिन्न लघु पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाल कर इस विधा के रचनाकारों को प्रोत्साहित भी किया है।
अतुल कुमार जी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए नए रचनाकारों से अपने वरिष्ठ लेखकों की रचनाओं का पाठ करने की जरूरत पर जोर दिया और सन्निधि संगोष्ठी के मकसद को उजागर करते हुए नए रचनाकारों की भूमिका का उल्लेख किया।
रचनाकरों की ओर से संगोष्ठी के संचालन में अथाह योगदान के लिए विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान के सचिव अतुल कुमार जी और उनकी धर्मपत्नी अनुराधा जी का सम्मान भी किया गया।
उसके पश्चात् अतुल जी ने किरण आर्य को सञ्चालन के लिए निमंत्रित किया ! किरण आर्य ने अपनी मुस्कान के साथ जो उनकी पहचान भी है, गोष्ठी की शुरुवात अपने हायकु गुरु पवन कुमार जैन जी के कुछ हायकु पढ़कर की, और हायकु के प्रचार प्रसार में पवन जी के योगदान को भी इंगित किया, मंच पर कुल 8 रचनाकारों ने अपने हायकु और क्षनिकाएं रखी, जिनके नाम है .....अरुन सिंह रूहेला, सुनीता अग्रवाल, सुशीला शिरोयन जी, संगीता शर्मा, राजीव गोयल, किरण आर्य, अभिषेक कुमार अभी, और शोभा रस्तोगी के अलावा हमारी अतिथि कवयित्री डॉ वंदना ग्रोवर दी ने अपनी कुछ क्षनिकाएं और कविताये सुनाई, जो दिल को छू लेने वाली रही, उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा की मैं सिर्फ मैं हूँ ..हमारे दूसरे अतिथि कवि सीमान्त सोहल जी ने भी अपनी कुछ कविताएं सुनाई, और सभी का मन मोह लिया !
उसके पश्चात हमारे मुख्य अतिथि श्री जगदीश व्योम जी ने काका कालेलकर जी को प्रणाम के साथ अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया, उन्होंने कहा आज फेसबुक ऐसा माध्यम है जहाँ सभी एक दुसरे से मुखातिब होते रहते है, और वहां दिखने वाले चेहरों को आपने यहाँ एकत्रित किया ये एक बहुत अच्छा आयोजन रहा, जैसे हायकु एक बंधी हुई विधा है, वैसे ही किरण आर्य ने हायकु जैसे ही समय को भी बाँध दिया, सहित्य में जितनी छोटी विधा होती है वह उतनी ही कठिन होती है, किसी बात को कम शब्दों में कहना कठिन होता है बहुत, जो लोग ये सोचकर लिखते है की छोटी विधा है तो आसान होगी वो लोग गलती करते है, कई बार ये बात उठती है की भारत मे इतने प्रकार के छंद है तो फिर हायकु ही क्यों? आप हर कथ्य को कहे कि दोहे में ही कहा जाए तो ये संभव नहीं है, अगर ये संभव होता तो तुलसीदास जी दोहे और चौपाई को छोड़कर बरवे रामायण नहीं लिखते, सभी विधायें एक दुसरे की पूरक है, जिस विधा में हम अपनी बात सहजता से कह सके वो विधा अच्छी है, इसके पश्चात उन्होंने अपने कुछ हायकु पढ़े जो समसामयिक और प्रेरक रहे !
इसके पश्चात् संगोष्ठी के अध्यक्ष श्री कमलेश भट्ट कमल जी ने अपने वक्तव्य में कहा, गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा और विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान के तत्वाधान से होने वाली इस गोष्ठी में शामिल होने का अवसर देने हेतु मैं किरण आर्य और अतुल प्रभाकर जी का आभारी हूँ क्युकि हम रहते तो गाजिअबाद में है लेकिन दिल्ली हमारे लिए दूर बनी रहती है, और दिल्ली को इन्होने हमारे करीब किया, और ये करीबी जिस विधा की वजह से बढ़ी वो कलेवर में छोटी होने के वाबजूद हायकु बड़ी विधा है, जिस तरह दिल्ली में रहते हुए हम आम आदमी की ताक़त समझ सकते है, वैसे ही हायकु एक बहुत ही महत्वपूर्ण विधा है, क्षणिका का जन्म कहाँ से हुआ इसके विषय में ठीक ठीक कुछ कह पाना संभव नहीं है, यह हमारी प्रयोगवादी नई कविता का ही एक हिस्सा है, जिसमे हम संक्षेप में अपनी बात को कुछ शब्दों में सीमित कर देते है, हायकु मुक्तक कविता की जापानी शैली है, जापान में ये सबसे लोकप्रिय शैली है कविता की, बाशो ने १७ वीं शताब्दी में हायकु को एक पहचान दिलाई, आज दुनिया भर में हायकु लिखे जा रहे है अगर आप हिंदी की ही बात करे तो हिंदी की सभी भाषाओं में आज हायकु लिखे जा रहे है, भारत में पहली बार हायकु की चर्चा रविन्द्र नाथ टैगोर जी ने की १९१६ में, उन्होंने कहा हायकु दुनिया की सबसे छोटी विधा है, हमने हायकु को छंद के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया, उसके पश्चात १९५९ में अज्ञेय जी ने अपनी पुस्तक में हायकु की पहली चर्चा की, उसके बाद भी हायकु बहुत लस्तम पस्तम चलता रहा !
जेनयु के प्रो. सत्यभूषण शर्मा जी जो पहले जापानी प्रोफ़ेसर थे, उन्होंने हायकु के विषय में विस्तार से बताया, हायकु का ५-७-५ का शिल्प क्या होता है, तो हायकु के प्रचार प्रसार का सारा श्रेय जेनयु को ही जाता है, किरण आर्य भी जेनयु से जुडी है, तो एक बार फिर हायकु जेनयु में लौट रहा है, १९७० के आसपास उन्होंने एक हायकु क्लब की स्थापना भी की, और एक हायकु पत्रिका की शुरुवात भी की, इस हायकु पत्रिका ने विश्व भर में हायकु को एक पहचान दिलाई, प्रो. सत्यभूषण जी कहते थे हायकु सत्य की साधना है, यहाँ शब्दों का बहुत अपव्यय है अज्ञेय जी कहते थे शब्द उर्जा है, और उसका सार्थक प्रयोग होना चाहिए, गाली में भी शब्द होता है, और कविता में भी, साहित्य के माध्यम से हायकु में हम सबसे सटीक ढंग से घनात्मक उर्जा का प्रयोग कर पाते है, हायकु को हम जब जानना शुरू करते है तो उलझन होती है और समझ लीजिये यहीं से हायकु आपको पकड़ रहा है, व्योम जी हमारे बीच है आज हायकु के क्षेत्र में उनका नाम बहुत प्रचलित नामो में से है शुरू में वो कहा करते थे अरे ये भी कोई विधा है, हायकु में बहुत अधिक व्याख्या नहीं होनी चाहिए हायकु स्वयं अपनी बात कहे, वो स्वत बोलता है, हायकु का एक कविता हो जाना उसे सार्थकता प्रदान करता है, अपने कुछ हायकु सुनाने से पहले उन्होंने कहा की अंत में मैं एक बात कहना चाहूँगा इस गोष्ठी में अधिकतर चेहरों को हमने मुस्कुराते हुए देखा, मित्रो हम देखते है साहित्य की गोष्ठियों में अधिकतर चेहरे उदास लटके हुए होते है, अगर साहित्य हमें थोड़ी देर के लिए जीवंत भी ना कर सके तो उसकी सार्थकता कैसी? मंच पर जितने प्रतिभागी आये उनमे बहुत संभावनाए और आत्मविश्वास दिखा, और इसके पश्चात् उन्होंने अपने कुछ हायकु पढ़कर सुनाये !
इसके पश्चात् विजयदान देथा की कहानियों पर आधारित एक नाटक का सुमन कुमार के निर्देशन में मंचन किया गया। सांप की व्यथा कथाओं पर केंद्रित इस नाटक को दर्शकों ने खूब सराहा.
प्रस्तुतकर्ता : किरण आर्या
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