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सन्निधि संगोष्ठी में आप सभी का स्वागत एवं अभिनन्दन।

Friday, 7 March 2014

सन्निधि संगोष्ठी विस्तृत रिपोर्ट माह : फरवरी २०१४

सन्निधि संगोष्ठी अंक : 11
दिनाँक / माह : 15 फरवरी, 2014
विषय : हायकु / साहित्यिक पत्रकारिता


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नमस्कार मित्रो 15 फ़रवरी को सन्निधि की ग्यारवीं संगोष्ठी जो साहित्यिक पत्रकारिता पर आधारित रही, इस संगोष्ठी की अध्यक्षता जाने माने साहित्यकार सीतेश आलोक जी ने की, मुख्य अतिथि के तौर पर राहुल देव जी हमारे बीच रहे, जो जनसता और आज तक से संपादक के तौर पर जुड़े रहे है .....उनके अतिरिक्त वक्ता के तौर पर विवेक मिश्रा, स्नेहा ठाकुर, विपिन चौधरी, शिवानंद सहर द्विवेदी, और आशीष कांध्वे जी संगोष्ठी का हिस्सा रहे, इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से मित्र जिनमे केदार नाथ जी, मिथिलेश श्रीवास्तव जी उनकी धर्मपत्नी श्रीमती अनीता श्रीवास्तव जी, संगीता शर्मा, सुशिल जोशी, कामदेव शर्मा, भाई अविनाश वाचस्पति जी उनके मित्र डॉ सुरेश चन्द्र जी उनकी धर्म पत्नी, श्री गंगेश गुंजन जी सहित बहुत से मित्र गण हमारे साथ शामिल रहे.....
संगोष्ठी की शुरुवात लतांत प्रसून जी ने की, और स्वागत भाषण के लिए अतुल जी को आमंत्रित किया, अतुल जी ने स्वागत भाषण के साथ ही संचालन की बागडोर प्रसून जी को सौप दी, प्रसून जी ने साहित्यिक पत्रकारिता की बात करते हुए सबसे पहले विवेक मिश्रा जी को बुलाया.

विवेक मिश्रा जी ने कहा साहित्यिक पत्रकारिता के विषय में बात करते हुए ये जानना आवश्यक है कि साहित्यिक पत्रकारिता क्या है? साहित्यिक पत्रकारिता की बात करते हुए किताबों की बिक्री या अन्य विषयों पर बात भटक जाती है ! जब हम साहित्य की बात करते है तो हम एक भाषा एक विषय की बात नहीं करते है, एक संस्कृति एक समाज के दायरे में साहित्य को नहीं बांधा जा सकता है, जब हम पत्रकारिता की बात करते है तो चीज़े बड़े और व्यापक स्तर पर लेते है, एक चींटी आकाश को मोडती है और आकाश को लील लेती है, साहित्यिक पत्रकारिता केवल सूचना का सन्दर्भ नहीं है, सवालों विचारों तक ले जाने वाली दुनिया है, समाज की परत दर परत खोलने का काम साहित्य के माध्यम से किया जा सकता है, यह व्यवस्था के विरोध की दुनिया है, जीवन में महिमामंडन की दुनिया है, उपदेश्य है जीवन की उदारता, साहित्य के बिना दुनिया चल तो सकती है, लेकिन कहीं पहुच नहीं सकती है, हिंदी में पत्रकारिता 19०० में सरस्वती संपादन में हमारे सामने आई व्यापक रूप में, और जब उसमे वृन्दालाल जी प्रेमचंद जी का उद्भव हुआ तब साहित्यिक पत्रकारिता मुखरित हुई, और रचनाये अधिक मारक सिद्ध होने लगी, १९४७ आजादी के मोहभंग का समय रहा, और सोच जाति धर्म को छोड़ वामपंथ का आलिंगन करने लगी ! बाज़ार आगमन के समय हंस जैसी पत्रिका का उदभव हुआ जो आज तक स्थाई है, हंस के साल बीत जाने के बाद साहित्यिक पत्रकारिता जो हाशिये पर खड़ी थी वर्गीकरण मांगने लगी आज जरूरत है साहित्यिक पत्रकारिता को परिभाषित करने की उसका वर्गीकरण करने की !
इसके पश्चात् किरण आर्य ने साहित्यिक पत्रकारिता पर अपने अल्प ज्ञान के साथ कुछ बातें कहते हुए स्नेह ठाकुर जी को मंच पर आमंत्रित किया !

स्नेह ठाकुर जी ने अपने वक्तव्य में कहा मैं श्रदेय काका साहब जी को नमन करते हुए सयोजकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ, काका साहेब स्मरणीय है काश मुझे उनके सानिध्य के कुछ पल प्राप्त हो पाते, बड़े बड़े विद्वान् मंचासीन है किरण जी से मेरा ज्ञान अल्प से भी अल्पतर है, विवेक जी ने काफी अच्छी व्याख्या की, और हमारे ज्ञान को बढाया, मैं ४५ साल से कनाडा में हूँ, मैं भाषा ज्ञान को समझती हूँ मेरा बेटा नही समझ पायेगा द्विवेदी जी ने जो निर्भीकता दिखाई मैं उसे ही पकड़कर निर्भीकता से बात कर रही हूँ, मेरे लिए गर्व का विषय है, स्नेह ठाकुर ने कोयले में से हीरा निकाला, समस्या मेरे सामने साहित्यिक पत्रिका निकालने की है विदेशों में अपनी भाषा को लेकर अधिक कुछ निकाल सकते है, हम विदेशों में केवल कहने भर को भारतीय है, उससे पहले बंगाली बिहारी या उतराखंडी है, यानी क्षेत्रवाद हावी है, कुछ कहते है, गाढ़ी हिंदी मत लिखिए कुछ कहते है कुछ तो साहित्यिक कीजिये तो समस्याएँ आती है बहुत सी आती है, लेकिन प्रयास रहता है की भारतीय संस्कृति को निखार सकूँ और रूप देती रहूँ !

उसके पश्चात् आशीष कंधवे जी ने अपना वक्तव्य दिया, उन्होंने कहा मैं नमन करता हूँ प्रसून जी अतुल जी और उनके साथ जुड़े सभी सदस्यों को जो हांक रहे है उस रथ को,जो साहित्य को दिशा दे रहा है नई, आज के सन्दर्भ में कहूँ तो खबरों को सनसनीखेज बनाना और टी आर पी के अनुसार परोसना आज पत्रकारिता है, पहले पत्रकारिता की मूल भावना जन चेतना थी जो आज शून्य हो गई है, जो प्रेरित है बाजारवाद और बहुत सी बहती हवाओं से, साहित्य का संस्कार खत्म हो गया है, उस पीढ़ी को मत रोइए जो बीत गई आज को सोचिये सुधारिए मन आज की सोचता हूँ उसे बुनता गुनता हूँ, साहित्य साहित्यिक उत्थान का परिचायक है, उसे हलके में नहीं लिया जा सकता है, निज भाषा को शुभाकांक्षी होना चाहिए, उसे एक खूटे से बंधकर नहीं रहना चाहिए, जब हम खूटे से बंध जाते है तो गुलाम हो जाते है, और जो गुलाम वो निष्पक्ष नहीं हो सकता है, विमर्शपूर्ण हो पत्रकारिता लेकिन ग्रस्त नहीं होनी चाहिए, समाज को उसके शिवत्व को प्राप्त करने के लिए पत्रकारिता माध्यम होनी चाहिए ! पत्रकार मतलब खालसा यानी सच्चा जो खालसा नहीं हो सकता वो पत्रकार नहीं है, पतन की कोई सीमा नहीं है, लेकिन अधोगामी प्रवृतियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना ही पत्रकारिता है !
विपिन चौधरी ने अपने वक्तव्य में आकड़ो पर प्रकाश डाला कि आज नामचीन अखबारों को पढने वालो की संख्या में जो अधोगति आई है, उन्होंने कहा हिंदी युग्म वाले हम सभी किसी भी विषय को सकारात्मक तौर पर नहीं देख पाते है और साहित्य के हासिए पर होने की ये एक प्रबल वजह है, और इसके साथ ही विपिन ने अपने वक्तव्य में साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए आयाम को जोड़ा !
शिवानंद सहर ने अपने वक्तव्य में कहा बोलने के लिए बहुत कुछ नहीं मेरे पास केवल कुछ बुनियादी ठोस बातें कहूँगा, पत्रकारिता पहले पत्रकारिता है, पत्रकारिता के कई पक्ष होते है, जैसे सुचना का संप्रेक्षण, विचारो का संप्रेक्षण, संवादों का संप्रेक्षण इत्यादि जब साहित्यिक पत्रकारिता की बात आती है, तो रिपोर्टिंग एक मात्र ऐसी विधा है, जहाँ आपसे निष्पक्षता की उम्मीद ज्यादा से ज्यादा की जाती है, सूचनाये आती है उन्ही के आधार पर खबरे बनती है, खबर वहीँ होती है जिसे दबाने की मंशा हो, उसके अतिरिक्त बाकी सब केवल विशुद्ध विज्ञापन है, साहित्य में क्या छिपाने की चाह है? साहित्य को इंसान से बड़ा नहीं मानता हूँ, हिंदी लोकभाषाओ का जोड़ तोड़ कही जा सकती है, हमने तमाम भाषाओ से शब्द लिए विधाएं नहीं ली, कोई भी साहित्य मनुष्य और मानवता से बड़ा नहीं हो सकता है !

राहुल देव जी ने अपने वक्तव्य में कहा हिंदी में औपचारिकता वैसे भी बहुत ज्यादा है, मैं पत्रकारिता में रहा हूँ, तो साहित्यिक पत्रकारिता से सरोकार पड़ता रहा है मेरा, और आज भी है, मैं हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के विषय में नहीं बोल सकता हूँ, हिंदी अखबारों में साहित्य के विषय में क्या छपता है, थोड़ी बहुत आलोचना पढता रहता हूँ, साहित्यिक पत्रकारिता के प्रभाव से हम बच नहीं सकते है, बहुत उर्जवाद है, हिंदी की रचनाशीलता साहित्य अनुराग बना हुआ है, आज हिंदी की व्यापकता में एक सिकुडन आती दिखती है, समाज में साहित्यकार की जगह भी सिकुड़ी है, हमारे पिता जो थे वो सम्पूर्ण व्यक्तित्व नहीं थे, लेकिन वो थे तो हम है, उनके योगदान को हम अनदेखा नहीं कर सकते है, या ये नहीं कह सकते उन्होंने ये नहीं किया, उन्होंने अपने संसाधनों के साथ जो दिया वो महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार महावीर जी नहीं होते तो हिंदी का स्तर क्या होता? साहित्य में भी क्षेत्रवाद हावी होता गर महावीर जी नहीं होते, हिंदी पर विदेशी साहित्य प्रवृति का बड़ा प्रभाव रहा है, हमने स्वयं को बाहरी दृष्टिकोण से अधिक मापा समझा है, जो भी मित्र अपने प्रयासों से साहित्यिक पत्रिका निकाल रहे है वो सराहनीय है, रिपोर्टिंग में संवादहीनता जो आ रही है चिंताजनक है, साहित्य के क्षेत्र में बड़े अखबारों में साहित्य का स्तर गिरा है, हिंदी की सरकती जमीन को रोकने का प्रयास नहीं दिख रहा है, जो आज स्थिति है वो हिंदी की हत्या या बलात्कार से विलग नहीं है, बड़े अखबारों में ये लगातार दृष्टिगोचर हो रहा है, ये प्रश्न पूछा जाए मठाधीशों से आपके समय में बड़े अखबारों में हिंदी अखबारों में जो छपता रहा उसका क्या स्तर है? और उसके प्रति आपकी जवाबदेही क्या है? गुटबाजी सब जगह होती है, लेकिन हिंदी साहित्य में जितनी खेमेबाजी दिखती है जितनी टांग खिचाई दिखती है, वो आश्चर्यजनक है, जबकि उसके पास वो जमीन वो खाद है, जिसके माध्यम से हिंदी विश्व स्तरीय बन सकती है, साहित्य में गाली गलौज देखने सुनने को मिलती है, भंगिमाओ में, भयानक रोग है छपास रोग, फूल मालाओं लफ्ज़बाजी के बगैर काम नहीं चलता, एक दुसरे की प्रशसा एक जैसे चेहरे गुटों के बीच तुम भी खुश मैं भी खुश जैसा दर्शन चलता रहता है, हिंदी ने अपना अभिजन नहीं पैदा किया है, आज देश में नायक की जरूरत है, हिंदी में नायकत्व नहीं दीखता है, जो नहीं रहे उन्हें महान नहीं बनाना है, जो जीवित है उनमे से नायक को ढूंढना है !

डॉ सीतेश आलोक जी ने अपने वक्तव्य में कहा साहित्य सामाजिक सरंचना को भी नहीं देख पा रहा है, उन्होंने हिंदी विशुद्ध हिंदी के प्रयोग प्रचार प्रसार पर जोर दिया उन्होंने कहा हिंदी के उत्थान के साथ ही साहित्यिक पत्रकारिता और समाज का उत्थान जुदा हुआ है !

और सबसे अंत में कामदेव शर्मा जी ने शानदार ढंग से धन्यवाद ज्ञापन करते हुए संगोष्ठी के समापन की घोषणा की .


प्रस्तुतकर्ता : किरण आर्या

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