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Monday 29 September 2014

औरत

औरत में जन्मजात होता है
एक गुण, ढलने का
समय के साथ वो
ढलती है नित नए रूप में

बालपन में ही दायरे
बना जाते है उसे व्यस्क
यहाँ मत जाओ, ये मत करो
ऐसे मत चलो, ऐसे मत हंसो

और वो ढलती हंसकर
हर परिधि में सिमटती
बेड़ियाँ सजाये पैरो में
रखती कदम फूंक फूंक कर

अनायास जब कदम उसके
पड़ जाते जलते कोयलों पर
तो सुलग उठता वजूद उसका
जलते अंगारों सी आंखें
हर तरफ से बेध देती
उसका शरीर

ढांपती उसे वो
कांपते हाथों से गिरती
संभलती उठती
लड़खड़ाते, कदमो को साधती
खुद ही चलती

सूर्य के उदयमान होने के साथ
खिलती धूप सी एक आंगन से
निकल दूसरें आँगन में
तुलसी के पौधे सी रोप दी जाती है

और वो ढल जाती है
हो जाती है उसी आँगन की
नए रिश्तों में बंधती
हर रिश्ते को अपने आंचल में
सहेजती बांधती

अपनी आँखों की गहराई में समेटती
ख़ुशी गम के साथ कितने ही फ़साने
जिन्दगी की माला में पिरोती
अनुभवों के मोती

ढलती शाम सी रखती
तह लगा ग़मों को अपने
सीले से गम
आँखों की नमी पा छलक ना जाए
इसीलिए हंसी की चादर उड़ा
सब ढांप लेती अपने अंतस में

करती रोशन चांदनी सा नेह बरसाती
मुस्कुराती ढलती
रिश्तों के धागे से बांधती जीवन को
रात में करवटें बदलती
सुबह के इंतज़ार में

औरत ढलती है उम्र के हर पड़ाव में
मौसम की रुतों सी
और एक दिन पा जाती सुकून रूह उसकी
जब बंधनों को तोड़ उन्मुक्त सा
चल पड़ता है उसका मन
हर मोह से विमुख हो एक अंतहीन सफ़र पर
********************

3 comments:

  1. आपकी लिखी रचना मंगलवार 30 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. waah. bahut badhiya....
    kya baat hai

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  3. सच औरत को जिंदगी में इतना ढलना होता है की वह खुद नहीं जान पाती। .
    बहुत बढ़िया

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